बैरिस्टर वल्लभ भाई पटेल एक मुकदमे की पैरवी कर रहे थे। पूरा ध्यान अदालत में चल रही जिरह और कानूनी दांव पेंचों पर लगा हुआ था। सरदार जिरह कर अपनी दलील पेश कर ही रहे थे कि एक सहयोगी ने आकर एक कागज का टुकड़ा हाथ में थमाया और कान में फुसफुसा कर कुछ कहा। सरदार ने कागज़ पर एक नज़र डाली, चेहरा एक पल के लिये विचलित सा हुआ, लेकिन उन्होंने कागज मोड़कर जेब में रख लिया। वापस अपनी जिरह में लग गये। सुनवाई खत्म होने के मुकदमे का फ़ैसला अपने हक़ में आने के बाद अपने सहयोगी से बोले,मेरी धर्मपत्नी झावेरीबा का देहांत हो गया है, मुझे घर जाना पड़ेगा। ज़िरह के दौरान जो तार मुझे मिला ,उसी से यह दुखद समाचार मुझे मिला है।
उपरोक्त कथा बहुतेरे लोगों ने सुनी है। सरदार पटेल को लौह पुरुष वाले व्यक्तित्व को परिभाषित करने वाली यह एक सर्वविदित प्रसंग है। जो बात ज्यादातर लोग नहीं जानते कि यह घटना 1909 की है, उस समय वल्लभ भाई की बेटी मनी छह साल की थी और बेटा दाहया तीन साल का। सामान्य कोई व्यक्ति होता तो शायद कुछ दिन घर पर बिताता , बच्चों की देखभाल के लिये दुबारा विवाह रचाता। लेकिन लौह पुरुष तो ठहरा लौहपुरुष। न शादी की और ना ही देशसेवा में कोई कमी होने दी। मतलब यह कि बच्चों की माँ तो चली ही गयी और अक्खड़ पिता देशप्रेम के मार्ग पर पहले ही निकल चुका था। ऐसे में मनी बेन ने अपने छोटे भाई का खयाल रखना शुरू किया। मनी ने यह फैसला किया कि उन्हें माँ की कमी भले महसूस हो,दाहया को वो माँ की कमी महसूस नही होने देंगी। छह साल की एक बच्ची अपने तीन साल के भाई का खयाल रखे, अगर यह बात अतिशयोक्ति लगती है तो यह प्रसंग सुनिये।
देश की पहली सरकार के गृहमंत्री और उपप्रधानमंत्री सरदार पटेल अपनी मृत्युशैय्या पर पड़े थे। बेटी मनी बेन को धीरे से बुलाया और कहा कि अगर उन्हें कुछ हो जाए तो घर पर रखे एक बक्से और एक बही खाते को जवाहर लाल को दे दिया जाए। पटेल कुछ दिनों बाद अपनी इहलीला समाप्त कर चल बसे। मृत्यु के समय उनके पहने वस्त्र ही उनकी संपत्ति थी। अपनी बेटी और बेटे के लिये वो अगर कुछ छोड़ गये थे तो वो था उनकी यादों और उनके आदर्शों का एक भारी गठ्ठर। वो गठ्ठर जिस उठा कर मनी बेन को चलना था। पिता का आदेश याद आया। बक्से और बही खाते को लेकर जवाहर लाल नेहरू के पास पहुंची। कहा कि पिता जी ने कहा था कि यह बक्सा आपको पहुंचा दिया जाए। नेहरू जी ने बक्सा खोल कर देखा, पैंतीस लाख रुपये की रकम रखी हुई थी, साथ में थी वो बही जिसमें कांग्रेस को चंदे में मिली राशि का पाई पाई का हिसाब था। नेहरू जी ने एक बार मनी की ओर देखा और फिर एक अर्दली को बक्सा अंदर रखने का आदेश दिया। साथ में नेहरू जी भी अंदर चले गये। पिता की मृत्यु एक बहुत बड़ी चोट होती है जो मजबूत से मजबूत व्यक्ति को एक क्षण के लिये मायूस और मजबूर सा कर देती है। त्रासद हृदय सहानुभूति के लिये व्याकुल होता है। मनी बेन कुछ देर वहां बैठीं रही, किसी मदद की आशा में नहीं बल्कि इस लिए कि शायद चाचा शायद सर पर एक बार हाथ रखेंगे और उनसे यह तो पूछेगें कि उनकी ज़िंदगी आगे कैसे चलेगी। पर जिस मनी के भाग्य में न माँ का प्यार था, न बाप की लाड़ , चाचा की सहानुभूति कैसे हो सकती थी। नेहरू जी कमरे से बाहर न आये, कुछ देर बाद मनी बेन उठ कर चली आयी, उनकी गाड़ी का समय हो रहा था। अहमदाबाद जाने वाली रेल गाडी के थर्ड क्लास के डब्बे में बैठी मनी की आँखों में दो कतरे आंसुओं के अलावा अगर कुछ था तो पिता के सेवाव्रत को आगे बढ़ाने का प्रण और पिता के आदर्शों के प्रति समर्पण। मनी बेन वापस आकर साबरमती आश्रम में उसी सेवा भाव से लग गईं जिस सेवा और त्याग को उन्होंने अपने पिता में साक्षात भाव में देखा था।
लोहा वैसे बड़ा कठोर और मजबूत होता है लेकिन बारिश और नम हवाएं उसमें जंग लगा देती हैं। जंग लगा लोहा परत दर परत अपनी मजबूती और चमक खोता जाता है। हाँ लोहे में अगर थोड़ा कार्बन और मैंगनीज़ जैसे तत्व मिला दिये जायें तो लोहा इस्पात बन जाता है। फिर लोहा नमी और जल से मिलकर भी जंग नहीं खाता और मजबूत बना रहता है। एक बात दीगर है कि ये तत्व इस्पात में अलग से नहीं दिखते, अदृश्य होकर भी वे लोहे का रक्षाकवच बनते हैं। लोहे की ताकत को यह अदृश्य अवयव ही अक्षुण्ण बनाये रखते हैं।
सरदार पटेल भीषण पारिवारिक स्थितियों और निजी विषम परिस्थितियों में भी अपने देशप्रेम के व्रत में अगर निर्बाध भाव से लगे रहे , अगर लोभ और स्वहित की आंधी में भी लौह पुरूष जंग लगकर कमजोर नही हुआ तो इसका कारण मनी का त्याग था जो बहुधा इतिहासकारों और कथाकारों को दृष्टिगत नहीं होता। यह मनी का निःस्वार्थ निष्काम व्यक्तित्व ही था जो अदृश्य बन कर लौहपुरुष को मजबूती प्रदान करता रहा। वल्लभ 'भाई' और मनी 'बेन' का यह गौरवशाली अध्याय हर भारतवासी के लिये एक प्रेरणास्रोत है।
रक्षाबंधन पर मनी बेन को सादर प्रणाम।।