Saturday, August 25, 2018

मनी बेन को समर्पित।।

बैरिस्टर वल्लभ भाई पटेल एक मुकदमे की पैरवी कर रहे थे। पूरा ध्यान अदालत में चल रही जिरह और कानूनी दांव पेंचों पर लगा हुआ था। सरदार जिरह कर अपनी दलील पेश कर ही रहे थे कि एक सहयोगी ने आकर एक कागज का टुकड़ा हाथ में थमाया और कान में फुसफुसा कर कुछ कहा। सरदार ने कागज़ पर एक नज़र डाली, चेहरा एक पल के लिये विचलित सा हुआ, लेकिन उन्होंने कागज मोड़कर जेब में रख लिया। वापस अपनी जिरह में लग गये। सुनवाई खत्म होने के मुकदमे का फ़ैसला अपने हक़ में आने के बाद अपने सहयोगी से बोले,मेरी धर्मपत्नी झावेरीबा का देहांत हो गया है, मुझे घर जाना पड़ेगा। ज़िरह के दौरान जो तार मुझे मिला ,उसी से यह दुखद समाचार मुझे मिला है।

उपरोक्त कथा बहुतेरे लोगों ने सुनी है। सरदार पटेल को लौह पुरुष वाले व्यक्तित्व को परिभाषित करने वाली यह एक सर्वविदित प्रसंग है। जो बात ज्यादातर लोग नहीं जानते कि यह घटना 1909 की है, उस समय वल्लभ भाई की बेटी मनी छह साल की थी और बेटा दाहया तीन साल का। सामान्य कोई व्यक्ति होता तो शायद कुछ दिन घर पर बिताता , बच्चों की देखभाल के लिये दुबारा विवाह रचाता। लेकिन लौह पुरुष तो ठहरा लौहपुरुष। न शादी की और ना ही देशसेवा में कोई कमी होने दी। मतलब यह कि बच्चों की माँ तो चली ही गयी और अक्खड़ पिता देशप्रेम के मार्ग पर पहले ही निकल चुका था। ऐसे में मनी बेन ने अपने छोटे भाई का खयाल रखना शुरू किया। मनी ने यह फैसला किया कि उन्हें माँ की कमी भले महसूस हो,दाहया को वो माँ की कमी महसूस नही होने देंगी। छह साल की एक बच्ची अपने तीन साल के भाई का खयाल रखे, अगर यह बात अतिशयोक्ति लगती है तो यह प्रसंग सुनिये।



देश की पहली सरकार के गृहमंत्री और उपप्रधानमंत्री सरदार पटेल अपनी मृत्युशैय्या पर पड़े थे। बेटी मनी बेन को धीरे से बुलाया और कहा कि अगर उन्हें कुछ हो जाए तो घर पर रखे एक बक्से और एक बही खाते को जवाहर लाल को दे दिया जाए। पटेल कुछ दिनों बाद अपनी इहलीला समाप्त कर चल बसे। मृत्यु के समय उनके पहने वस्त्र ही उनकी संपत्ति थी। अपनी बेटी और बेटे के लिये वो अगर कुछ छोड़ गये थे तो वो था उनकी यादों और उनके आदर्शों का एक भारी गठ्ठर। वो गठ्ठर जिस उठा कर मनी बेन को चलना था। पिता का आदेश याद आया। बक्से और बही खाते को लेकर जवाहर लाल नेहरू के पास पहुंची। कहा कि पिता जी ने कहा था कि यह बक्सा आपको पहुंचा दिया जाए। नेहरू जी ने बक्सा खोल कर देखा, पैंतीस लाख रुपये की रकम रखी हुई थी, साथ में थी वो बही जिसमें कांग्रेस को चंदे में मिली राशि का पाई पाई का हिसाब था। नेहरू जी ने एक बार मनी की ओर देखा और फिर एक अर्दली को बक्सा अंदर रखने का आदेश दिया। साथ में नेहरू जी भी अंदर चले गये। पिता की मृत्यु एक बहुत बड़ी चोट होती है जो मजबूत से मजबूत व्यक्ति को एक क्षण के लिये मायूस और मजबूर सा कर देती है। त्रासद हृदय सहानुभूति के लिये व्याकुल होता है। मनी बेन कुछ देर वहां बैठीं रही, किसी मदद की आशा में नहीं बल्कि इस लिए कि शायद चाचा शायद सर पर एक बार हाथ रखेंगे और उनसे यह तो पूछेगें कि उनकी ज़िंदगी आगे कैसे चलेगी। पर जिस मनी के भाग्य में न माँ का प्यार था, न बाप की लाड़ , चाचा की सहानुभूति कैसे हो सकती थी। नेहरू जी कमरे से बाहर न आये, कुछ देर बाद मनी बेन उठ कर चली आयी, उनकी गाड़ी का समय हो रहा था। अहमदाबाद जाने वाली रेल गाडी के थर्ड क्लास के डब्बे में बैठी मनी की आँखों में दो कतरे आंसुओं के अलावा अगर कुछ था तो पिता के सेवाव्रत को आगे बढ़ाने का प्रण और पिता के आदर्शों के प्रति समर्पण। मनी बेन वापस आकर साबरमती आश्रम में उसी सेवा भाव से लग गईं जिस सेवा और त्याग को उन्होंने अपने पिता में साक्षात भाव में देखा था।

लोहा वैसे बड़ा कठोर और मजबूत होता है लेकिन बारिश और नम हवाएं उसमें जंग लगा देती हैं। जंग लगा लोहा परत दर परत अपनी मजबूती और चमक खोता जाता है। हाँ लोहे में अगर थोड़ा कार्बन और मैंगनीज़ जैसे तत्व मिला दिये जायें तो लोहा इस्पात बन जाता है। फिर लोहा नमी और जल से मिलकर भी जंग नहीं खाता और मजबूत बना रहता है। एक बात दीगर है कि ये तत्व इस्पात में अलग से नहीं दिखते, अदृश्य होकर भी वे लोहे  का रक्षाकवच बनते हैं। लोहे की ताकत को यह अदृश्य अवयव ही अक्षुण्ण बनाये रखते हैं।

सरदार पटेल भीषण पारिवारिक स्थितियों और निजी विषम परिस्थितियों में भी अपने देशप्रेम के व्रत में अगर निर्बाध भाव से लगे रहे , अगर लोभ और स्वहित की आंधी में भी लौह पुरूष जंग लगकर कमजोर नही हुआ तो इसका कारण मनी का त्याग था जो बहुधा इतिहासकारों और कथाकारों को दृष्टिगत नहीं होता। यह मनी का निःस्वार्थ निष्काम व्यक्तित्व ही था जो अदृश्य बन कर लौहपुरुष को मजबूती प्रदान करता रहा। वल्लभ 'भाई' और मनी  'बेन' का यह गौरवशाली अध्याय हर भारतवासी के लिये एक प्रेरणास्रोत है।

रक्षाबंधन पर मनी बेन को सादर प्रणाम।।

Friday, August 17, 2018

अटल जी को समर्पित

‌एक कवि का कोमल हृदय रखने वाला जो पोखरण जैसे कठोर निर्णय भी ले सकता है। राजनीति में अजातशत्रु कहलाने वाला एक नेता जो करगिल में घुस आए दुश्मनों को पराजित करने वाला सेनापति बन सकता है। कंधार में पीठ पर घोंपे गए खंजर के बावजूद जो मैत्री का संदेश लेकर लाहौर जा सकता है। चार दशक विपक्ष में बैठने के बाद मिली सत्ता को छल द्वारा एक वोट से छीने जाने पर भी जो बिना चेहरे पर शिकन के झेल सकता है। संयुक्त राष्ट्र में अपनी मातृभाषा में बोलने पर गर्व का अनुभव करने वाला जो दिल्ली मेट्रो की परिकल्पना भी कर सकता है। दो सीट वाली सूक्ष्म पार्टी से शुरुआत करने वाला जो स्वर्णिम चतुर्भुज जैसी दीर्घकालीन और दूरदर्शी परियोजनाओं को धरातल पर उतारने का कार्य कर सकता है। दलगत राजनीति के दौर में भी जो सच में राष्ट्र नेता कहला सकता है। विराम लेकर बोलने वाला जो अपने संगठन और दल के लिये सात दशकों तक अविराम श्रम कर सकता है। धीमी चाल से चलने वाला जो देश को तीव्र आर्थिक विकास दर से आगे ले जा सकता है।

‌वो जो भी हो वो भारत का अनमोल रत्न है जिसकी कीर्ति ध्रुव तारे की तरह अप्रतिम है, अटल है। अश्रुपूरित श्रद्दांजलि।


Wednesday, August 15, 2018

गांव वाला पन्द्रह अगस्त

सुबह के छह बजे सारे बच्चे स्कूल प्रांगण में जमा हैं। सबके कपडे भले ही पुराने हों, झंडा तिरंगा सबका नया है। विद्यालय प्रांगण भी बिल्कुल अलग सा दिख रहा है,सजा संवारा सा। खड़ी और पड़ी ईंटो के डिजाइन से घेरा गया है झंडोतोलन का स्थान । सजावट के लिये प्रयुक्त ये ईंट पास के ज़मीन्दार के अर्धनिर्मित बैठक और बनिये की चहारदीवारी के लिए रखे गए ईंट के ढेर से नज़र बचा कर लाये गए हैं। अगर देश के लिए मरना शहादत और मारना वीरता कहलाती है तो देश के लिए चोरी करना क्या कहलायेगा, इस पचड़े में बच्चे नहीं पड़ते। उन्हें तो बस पंद्रह अगस्त मनाना है। उसके लिए जो करना पड़े, वो करेंगे। अब उस बांस को ही देख लीजिये जो शान से सर उठाये झंडोतोलन के लिए तैयार सावधान मुद्रा में बीच प्रांगण में खड़ा है, इतनी आसानी से नहीं मिला। कल शाम में कम से कम बारह बच्चों की वानर सेना ने इसको तलाशने के लिये खेत खलिहानो में धमाचौकड़ी  मचायी । बीसियों बांसों को देखने के बाद उस बांस की बल्ली को चुना गया जिसपर तिरंगा को आसमान की ऊंचाई तक पहुंचाने की जिम्मेदारी सौंपी जाएगी।

बांस को चुन लेना तो बस उतना ही काम है जितना कि गांधी जी ने कह दिया कि अंग्रेजों भारत छोड़ो। असली लड़ाई तो उसके बाद लड़ी गयी। बांस काँटना भी कुछ वैसा ही है। बांस की झाड़ियां एक दूसरे से वैसे उलझी होती हैं जैसे बोफोर्स और अगुस्ता की डील। बांस को झाड़ियों कर खींच कर निकालने में एकता का जो परिचय बच्चे देते हैं वो परिचय अगर नेहरू और बोस ने दिया होता तो शायद आजादी 5 साल पहले मिल गयी होती। उसके बाद बांस को हंसूए से छील कर साफ और चिकना किया जाता है। आज़ादी सत्य अंहिंसा के बल पर बिना खून बहाये शायद मिली हो, बांस को छीलने में बच्चों का खून जरूर कुर्बान होता है। पर पंद्रह अगस्त के समय पर इसकी परवाह कैसी।परवाह तो है कि जल्दी से यह बांस स्कूल पहुंचे और बाकी की तैयारियां  पूरी की जा सकें।


स्कूल तक पहुंचने का रास्ता कच्चा है इसीलिये पानी और कीचड़ को हटा कर उसमें बालू और मिट्टी डाली गई है जहां पानी ज्यादा है वहां ईंटें लगा दी गईं है बच्चों द्वारा। कभी कभी लगता है आज़ादी दिलाने में मानसून का सहयोग आज तक किसी ने नही माना। अगर फिरंगियों के मन में रहा भी होगा कि अभी आज़ादी दें या कुछ दिन रुक कर जाएं तो सारा शुबहा मॉनसून की बारिश देख कर ही दूर हो गया होगा। इसीलिए अंग्रेज़ बीच बरसात में भारत छोड़ कर भाग गए। स्कूल प्रांगण की सारी घास साफ कर दी गयी है और बाहर डाल दी गई है। बकरियों का एक झुंड कटी घास पर नेवतें उड़ा रहा है।

कुछ बच्चे विद्यालय प्रांगण में बैठे नारियल की रस्सी में आम के पत्ते फंस कर वल्लरी बना रहे हैं जिससे झंडोतोलन वाले बांस को बाकी के प्राँगण को सजाया जाएगा। कुछ बच्चे कागज की तिकोने छोटे छोटे झंडे गोंद से रस्सी में  चिपका कर रहे हैं। इससे  विद्यालय का तोरणद्वार बनाया जाएगा। झंडोत्तोलन के समय जो फूल झंडा खुलने के बाद बरसने हैं, उन्हें भी बच्चे ले आएं हैं। लेकिन इन फूलों को झंडे के कपड़े में बाँधने की जो कला है वो अद्वितीय है। फूल  ऐसे बाँधे जाने चाहिए कि फहराने के समय रस्सियों के एक झटके से खुल जायें सिर्फ रस्सियों के झटके से ही खुलें । अब यह कला तो सिर्फ स्कूल के चपरासी चाचा को आती है। दो बच्चे उनको सुबह सुबह उनके घर उठा ले आये हैं ताकि झंडे में फूल बांध झंडोतोलन की बाकी तैयारियां पूरी की जा सके।

स्कूल सरस्वती पूजा के बाद फिर से सजा संवारा दिख रहा है। अब ऐसी सजावट अगर गाँव वाले न देखें तो फिर क्या मज़ा? इसलिये पंद्रह अगस्त को बच्चे सवेरे सवेरे पूरे गांव में प्रभातफेरी कर आये हैं। इन्कलाब ज़िंदाबाद और महात्मा गांधी अमर रहें का नारा लगाने वालों बच्चों को शायद इसके मायने भी नही पता , लेकिन गांव वालों के लिये इसका एक ही मतलब है। बच्चे हम गांव वालों को न्योता देने आए हैं कि हमारे स्कूल आओ और देखो हमने क्या सजावट की हैं। ज़मीन्दार के बेटे की बारात का निमंत्रण ठुकराया जा सकता है लेकिन इन मासूमों का निमंत्रण ठुकराने वाली कठोरता अभी गांव वालों में नहीं आई।
कै बजे फहरेगा झंडा?? साढ़े आठ बजे ।
पांच बच्चे एक साथ जवाब देते हैं।
ठीक है हम लोग आ जाएंगे। हो गया आमंत्रण स्वीकार।

सवा आठ बजे सारे बच्चे , सारे शिक्षक और सारी शिक्षिकाएं स्कूल पहुंच गए हैं। गणित वाली मैडम भी जिसको देख कर की आधे बच्चों का हलक सूख जाता है आज कितनी प्यारी दिख रही हैं। इतिहास वाले मास्टर साब जिनकी मुस्कान दिखना सिंधु घाटी की भाषा पढ़ने जैसा कठिन है, आज कितना मुस्कुरा रहे हैं। सारे बच्चे कक्षा के हिसाब से कतार में लग गये हैं, और हेडमास्टर साब भी झंडोतोलन के लिए आ चुके हैं। 9वी कक्षा का एक छात्र चिल्लाता है सावधान। आधे बच्चे सावधान की मुद्रा में खड़े हो जाये हैं, जिनको सावधान की मुद्रा का पता नही बस ठिठक कर खड़े हो जाते हैं।

जिस तरह हेडमास्टर साब का खादी वाला परिधान 15 अगस्त को पहनना पक्का है, झंडा उनसे न खुलना भी पक्का है। चपरासी चाचा आगे बढ़ते है और बताते हैं कि रस्सी के किस सिरे को पकड़ना है और किस सिरे को खींचना है। कितना भी बताओ, हेडमास्टर साब को क्या समझ में आना। चपरासी चाचा आगे बढ़ कर अपने हाथों से रस्सी को झटका देते हैं और वो गाँठ खुलती है जिससे उन्होनें खुद बांधी थी। ऊपर से पुष्वर्षा होती है और राष्ट्रगान शुरू हो जाता है। कभी कभी लगता है कि चपरासी चाचा जान बूझ कर ऐसे गांठ लगाते थे कि झंडा उनकी मदद के बिना फहर ही न सके।

भाषण के बाद शुरू होता है जलेबी , बूंदी और सेव बंटने का दौर। एक चीज़ समझ में नहीं आती, कि भी कुछ देर पहले  सारे जिन बच्चों को देश का भविष्य और नेता बताया जा रहा था को कहा जा रहा था कि राष्ट्र निर्माण की सारी जिम्मेदारी उनपर हैं उन्हें  मिठाई  बांटने जैसी छोटी जिम्मेदारी निभाने लायक भी नही समझा गया । देश बनाना की जिम्मेदारी भले ही बच्चों की हो पर मिठाई तो खंडूस मास्टर साब ही बांटेंगे। खैर जो भी हो, मिठाई कोई भी बांटे, स्वाद तो वही रहेगा। अप्रतिम और अमूल्य। पांच सितारा होटल के कॉन्टिनेंटल डेसर्ट्स में भी वो स्वाद अब मयस्सर नहीं। स्वतंत्रता सेनानियों को आज़ादी पाकर कितनी खुशी मिली होगी इसका अंदाज़ा बच्चों को जलेबी और सेव पाकर मिली खुशी से लगाया जा सकता है। स्कूल आकर भी कक्षा में पढ़ाई नही करनी, मिठाई खा कर चाहो तो दिन भर कबड्डी, खोखो खेलते रहो। कोई रोकने वाला नहीं, कोई टोकने वाला नहीं। आज़ादी और स्वतंत्रता शायद इसको ही कहते हैं।

अब जब 15 अगस्त के मतलब लांग वीकेंड और ड्राई डे हो गया है, याद आता है बचपन वाला गांव का 15 अगस्त। आजकल हर कोई बताता है कि हैप्पी इंडिपेंडेंस डे पर इंडिपेंडेंस का पता नही चलता । पहले कोई बताता नही था पर आजादी का पता चलता था।

स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं। जय हिंद।।