Wednesday, November 26, 2025

प्राकृतिक या कृत्रिम

काफ़ी लोग अभिनेता धर्मेंद्र के निधन से दुखी हैं । उनपर दुखों का दूसरा पहाड़ तब टूट पड़ा जब भारत दक्षिण अफ़्रीका से घर पर टेस्ट सीरीज़ हार गई । धर्मेंद्र को ही मैन कहा जाता है जो एक काल्पनिक चरित्र है । किसी कल्पना शील व्यक्ति ने अपनी कल्पना से ही मैन को गढ़ा । धर्मेंद्र में फ़िल्मों में काम करते थे , फिल्में जो कई कल्पनाशील व्यक्तियों के सामूहिक प्रयास के बाद ही बनती हैं । तो कुछ लोगों बी कल्पित चलचित्र में धर्मेंद्र को देख कर उनमें ही मैन की छवि देखी और उनको ही मैन कहने लगे । 

इससे ऊपर चलिए । कुछ पीढ़ियों की सामूहिक कल्पना शीलता का परिणाम है क्रिकेट का खेल । यह प्रकृति प्रदत्त नहीं है हमारी शारीरिक विशेषताओं जैसे आँख कान नाक की तरह । हमने इस खेल को बनाया है । उसी तरह देशों की अवधारणा भी बिल्कुल मानव की रचना शीलता पर आधारित है । प्रकृति को कोई अन्य जीव देशों साम्राज्यों आदि की सीमाओं को नहीं जानते और नहीं मानते । यही चीज़ें धर्म , प्रेम , ईश्वर , जाति आदि के लिए भी सच है । सारे वाद , सारे विवाद ,सारी विचारधाराये और इनसे जनित सारे संघर्ष और समस्याएं भी इसी में शामिल हैं । मानव ने अपने आप को इन कल्पित संकल्पनाओं के आधार पर संगठित किया है , इन्ही आधारों पर वह अपनी खुशियाँ ढूँढता है जैसे जितने भी त्योहार हैं , मानव द्वारा कल्पित हैं , चाहे होली हो या क्रिसमस । इन्ही आधारों पर मानव दुखी होने का कारण ढूँढ लेता है । जैसे कि क्रिकेट में हार पर फैन उदास हो जाते हैं और जीत पर प्रसन्न हो जाते हैं । दोनों का आधार कल्पित और कृत्रिम है । संसार का कोई भी जीव ऐसे कारणों से ना उदास होता है और ना हर्षित । हमारी कल्पना ही है जो निर्जीव चंद्रमा में अपने महबूब को और सुदूर तारों में अपने मृत पूर्वजों को खोज लेता है । 
यह कल्पना शीलता ही मानव सभ्यता का आधार है जो ख़ुद की बनायी चीज़ों को उनके मूल रूप से अलग रूप में देख कर अपने जीवन को अलग अलग रूप से कभी धनात्मक और कभी ऋणात्मक रूप से प्रभावित करता है । 

थोड़ा विचार करके देखिए तो यह सारा मायाजाल हमारे दिमाग़ की उपज है । आप इन संकल्पनाओं को माने या ना माने आपकी प्राकृतिक संरचना में कोई बदलाव नहीं आने वाला । 

आप आप चाहें तो भारतीय अभिनेता के जाने और भारत के क्रिकेट श्रृंखला की पराजय का दुख महसूस कर सकते हैं या विचार कर सकते हैं कि यह दुख महसूस करना या ना करना आपकी चॉइस हैं कोई प्रकृति सिद्ध नियम नहीं । प्रकृति की नज़र में हम सिर्फ़ एक प्राणी हैं जिसके नियम सिर्फ़ हमारी क्षुधा , निद्रा और मैथुन और मृत्यु तक सीमित हैं । बाक़ी आपकी भावनाएँ सब कृत्रिम हैं बनावटी हैं मानव जनित हैं और सिर्फ़ आप पर निर्भर करती हैं कि यह कृत्रिम संसार आप पर वास्तविक प्रभाव डाल सकता है या नहीं । 

Saturday, November 15, 2025

लोकतन्त्र के महापर्व का विमर्श

भारतीय लोकतंत्र में चुनावों को प्रायः “महापर्व” कहा जाता है। पर्व का सामान्य अर्थ है उत्सव । अतः चुनावों को महापर्व की उपमा देने की प्रक्रिया सतही दृष्टि से केवल चुनावी उत्साह, जनभागीदारी और राजनीतिक गतिविधियों की चहल-पहल का संकेत प्रतीत हो सकती है; किंतु गहराई से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि “महापर्व” शब्द की वास्तविक व्यंजना उत्सव से कहीं अधिक व्यापक है। भारतीय परंपरा में पर्व केवल आनंद या अनुष्ठान का समय नहीं, बल्कि किसी कथा, किसी विचार या किसी व्यवस्था के विकास का महत्वपूर्ण अध्याय भी माना जाता है। महाभारत महाकाव्य के अठारह अध्यायों को अठारह पर्व कहा गया है, यथा भीष्म पर्व, शान्ति पर्व, आदि पर्व और स्वर्गारोहण पर्व। प्रत्येक पर्व कहानी को नई दिशा देता है, नए पात्र प्रस्तुत करता है और पुराने घटनाचक्रों का पटाक्षेप करता है। इसी दृष्टि से देखें तो भारतीय लोकतंत्र के प्रत्येक चुनाव को “महापर्व” कहना अत्यंत सार्थक प्रतीत होता है।

चुनाव लोकतंत्र का मात्र तकनीकी पक्ष नहीं, बल्कि उसका आत्मा-भाग है। प्रत्येक चुनाव देश की सामूहिक चेतना के नए विचारों, नई आकांक्षाओं और नए विमर्शों को सामने लाता है। किसी पर्व में आर्थिक सुधार जनमत का केंद्र बनता है, तो कभी सामाजिक न्याय, कभी पारदर्शिता और लोक व्यवहार में शुचिता जनता के चिंतन के मध्य में विराजमान होता है तो कभी सुरक्षा तो कभी क्षेत्रीय पहचान। सामान्य और बोलचाल की भाषा में कहें तो हर चुनाव का अपना एजेंडा या नैरेटिव होता है। इसलिए हर चुनाव भारतीय जनतंत्र के इतिहास में एक नए अध्याय का उद्घाटन करता है। यह अध्याय न केवल सरकार के गठन से संबंधित होता है, बल्कि यह भविष्य की नीति-रेखाओं और शासन के चरित्र को भी निर्धारित करता है। जिस प्रकार महाभारत का प्रत्येक पर्व आगे की कथा का स्वर निर्धारित करता है, वैसे ही भारतीय चुनाव आगे के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मार्ग का निर्धारक बन जाता है।

इसके अतिरिक्त, चुनाव नए राजनीतिक पात्रों के उद्भव का मंच भी है। कोई युवा नेतृत्व पहली बार राष्ट्रीय पहचान प्राप्त करता है, कोई क्षेत्रीय शक्ति राजनीतिक विमर्श को व्यापक आकार देती है, और कोई नई विचारधारा जनमानस में अपनी जगह बनाती है। इसी प्रक्रिया में कुछ पुराने पात्र धीरे-धीरे राजनीतिक परिदृश्य से ओझल होते जाते हैं। इस प्रकार चुनाव जनतंत्र में पात्र-परिवर्तन की स्वाभाविक और आवश्यक प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं। यह परिवर्तन लोकतंत्र को जीवंत बनाए रखता है, उसे स्थिरता और गतिशीलता दोनों का संतुलन प्रदान करता है।

चुनाव सामाजिक और राजनीतिक मानदंडों का भी पुनर्सृजन करते हैं। प्रत्येक चुनाव में यह स्पष्ट होता है कि जनता किन मूल्यों को महत्वपूर्ण मानती है—समानता, विकास, सुरक्षा, पहचान, या अवसर-सृजन। यह प्राथमिकता समय के साथ बदलती रहती है, और इसके साथ ही बदलते हैं नीतिगत निर्णय, चुनावी भाष्य और शासन का दृष्टिकोण। इस परिवर्तनशीलता में ही लोकतंत्र की शक्ति निहित है। इसलिए हर चुनाव केवल एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि राष्ट्रीय मनोवृत्ति का सूचक भी होता है।

अंततः, चुनाव लोकतंत्र के भविष्य की दिशा निर्धारित करते हैं। वे इस बात का निर्णय करते हैं कि देश किस प्रकार की आर्थिक नीति अपनाएगा, किन सामाजिक मूल्यों को प्राथमिकता देगा, विश्व मंच पर अपनी भूमिका कैसे परिभाषित करेगा, और जन-संस्थाएँ किस रूप में आगे बढ़ेंगी। अपने प्रभाव में चुनाव केवल दिन या सप्ताह की घटना नहीं हैं; वे वर्षों तक चलने वाली राष्ट्रीय यात्रा का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इस दृष्टि से वे वास्तव में भविष्य-सृजन के पर्व हैं।

इन सभी आयामों को समेटते हुए कहा जा सकता है कि चुनावों को “महापर्व” कहने की भारतीय परंपरा अत्यंत उपयुक्त और गहरी अर्थवत्ता लिए हुए है। यहाँ पर्व का अर्थ केवल उत्सव नहीं, बल्कि लोकतंत्र की सतत चलने वाली कथा का एक महत्वपूर्ण अध्याय है—एक ऐसा अध्याय जो देश की दिशा, दशा और संवेदना को बदल सकता है।

इस प्रकार, भारतीय लोकतंत्र का प्रत्येक चुनाव न केवल मतदान का अवसर है, बल्कि एक नये युग का आरंभ, एक नए विमर्श का उद्घाटन और राष्ट्र-निर्माण की दीर्घकालिक प्रक्रिया का सशक्त चरण है। वास्तव में, चुनाव भारतीय जनतंत्र का वह महापर्व है जिसमें जनता स्वयं अपने भविष्य का लेखन करती है।

Wednesday, November 12, 2025

जनता जनार्दन और शक्ति का अस्थाई हस्तांतरण

मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ शासन प्रणालियों का स्वरूप भी बदलता रहा है। कभी राजतंत्र था, जहाँ सत्ता राजा के हाथों में केंद्रित रहती थी; कभी अभिजाततंत्र और निरंकुशतंत्र, जहाँ कुछ गिने-चुने वर्ग जनता पर शासन करते थे। इन व्यवस्थाओं ने कभी-कभी त्वरित निर्णय और तीव्र विकास की दिशा तो दी, परंतु जनता से दूरी और सत्ता के दुरुपयोग ने अंततः उन्हें अस्थिर बना दिया। इतिहास का अनुभव बताता है कि जब भी शक्ति और सत्ता का स्थायी हस्तांतरण हुआ, वहाँ अन्याय और शोषण ने जड़ें जमा लीं।

लोकतंत्र इन सभी व्यवस्थाओं से भिन्न और श्रेष्ठ इसलिए है क्योंकि यह शक्ति और सत्ता को सशर्त, सीमित और अस्थायी रूप से सौंपता है। यह मान्यता कि “सत्ता जनता से आती है” ही लोकतंत्र की आत्मा है। यही कारण है कि भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में यह व्यवस्था आज भी सबसे उपयुक्त सिद्ध हो रही है। लोकतंत्र में सत्ताधारी व्यक्ति नहीं, बल्कि व्यवस्था सर्वोपरि होती है। यहाँ शासन करने का अधिकार किसी व्यक्ति या वंश की स्थायी संपत्ति नहीं, बल्कि जनता द्वारा दिया गया अस्थायी दायित्व होता है।

“जनता जनार्दन” — यह केवल एक कहावत नहीं, बल्कि लोकतंत्र की दार्शनिक नींव है। जनता ही वह शक्ति है जो सत्ता को जन्म देती है, उसे नियंत्रित करती है, और आवश्यकता पड़ने पर बदल भी देती है। यही परिवर्तनशीलता लोकतंत्र को जीवंत और आत्मसुधारक बनाती है। अन्य व्यवस्थाएँ जहाँ स्थायित्व के नाम पर जड़ता और तानाशाही को जन्म देती हैं, वहीं लोकतंत्र अपनी लचक और जवाबदेही के कारण निरंतर प्रगतिशील रहता है।

लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबी यही है कि यह सत्ता और सत्ताधारी दोनों को अस्थायी रखता है। यह अस्थायित्व ही जनता के स्थायी कल्याण की गारंटी है। जब किसी शासक को यह ज्ञात होता है कि उसे समय पर जनता के समक्ष जवाब देना है, तो वह जनता के हित में कार्य करने के लिए बाध्य होता है। इसके विपरीत जहाँ सत्ता स्थायी होती है, वहाँ जवाबदेही समाप्त हो जाती है और शक्ति का दुरुपयोग अनिवार्य रूप से बढ़ जाता है। हमने पौराणिक कहानियों में पढ़ा है कि भगवान जब भी किसी को आशीर्वाद या वरदान देते थे तो कोई न कोई शर्त रख कर ही देते थे जिससे कि वह वरदान नियमों के उल्लंघन के बाद निष्प्रभावी हो जाता था। जनता भी जनार्दन की तरह अपना वरदान शर्तों से आधीन कर ही देती है, इसीलिए जनता जनार्दन कहलाती है । बिना शर्तों के दिया गया वरदान हिरण्यकश्यप और भस्मासुर ही पैदा करती है। लोकतंत्र में जनता जनार्दन हमेशा इसका ध्यान रखती है कि उसका वरदान किसी भस्मासुर को उत्पन्न न कर दे। 

समय बदलता है, परिस्थितियाँ बदलती हैं, और इसी परिवर्तनशीलता के साथ समाज को भी नये नेतृत्व, नयी नीतियों और नयी दृष्टि की आवश्यकता होती है। लोकतंत्र इस सतत परिवर्तन की प्रक्रिया को सहज बनाता है। यह जनता को अवसर देता है कि वह अपने समय, देश और काल के अनुरूप नेतृत्व का चयन करे। व्यक्ति चाहे वही रहे, उसकी सोच को समय के अनुसार बदलना ही पड़ता है — यही लोकतंत्र का आत्म-संशोधन तंत्र है।

अंततः यही सत्य है कि लोकतंत्र केवल शासन की एक व्यवस्था नहीं, बल्कि शक्ति के संतुलन की एक सतत प्रक्रिया है। यह व्यवस्था हमें यह सिखाती है कि सत्ता को कभी भी स्थायी नहीं होना चाहिए — क्योंकि जहाँ शक्ति स्थायी होती है, वहीं से उसके दुरुपयोग की शुरुआत होती है।

इतिहास गवाह है कि जब शक्ति सीमाहीन हो जाती है, तो वह मानवता को ग्रस लेती है। यही कारण है कि लोकतंत्र सत्ता को सीमित और सशर्त रखकर समाज को सुरक्षित बनाता है। इस संदर्भ में यह कहावत अत्यंत सार्थक प्रतीत होती है —

“Power is poison.”

शक्ति जब जवाबदेही से मुक्त हो जाती है, तो वह विष बन जाती है — जो अंततः शासन, समाज और नैतिकता — तीनों को क्षीण कर देती है।
लोकतंत्र इस विष को औषधि में बदल देता है, क्योंकि इसमें शक्ति का विष हर चुनाव में, हर जनमत में, जनता के विवेक से निरंतर निष्क्रिय किया जाता है।

यही लोकतंत्र की अमर विशेषता है —
सत्ता अस्थायी है, पर “जनता जनार्दन” शाश्वत है।

 रश्मिरथी में जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि 
"सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।"
संभवतः वे लोकतंत्र में जनता की ही बात करते हैं जहां शक्ति और सत्ता का अंतिम स्रोत जनता जनार्दन ही है। 

Wednesday, November 5, 2025

दुःख का चरित्र

दुःख युधिष्ठिर के कुत्ते के समान है — जहाँ भी जाओ, यह पीछे-पीछे चलता है, पीछा नहीं छोड़ता। स्वर्ग देखा तो नहीं, पर वहां भी दुःख विद्यमान है। अगर दुःख वहां न होता तो इंद्रराज हर बात पर यूं विचलित न होते।


भाई, बंधु, सखा, हितैषी — सब साथ छोड़ दें, लेकिन दुःख सदा साथ रहता है।
यह आपके जूतों में छिपे उस कंकड़ की तरह है — अपने जूते में हो तो जान निकाल दे, पर किसी और के जूते में हो तो दिखाई भी नहीं देता।
अपना दुःख दिल-दिमाग में बस जाने वाला वह बिना किराया चुकाए रहने वाला ज़िद्दी किरायेदार है, जिसे जितना भी कहो, मकान खाली नहीं करता।


दुःख वह पाठ है जो चाहकर भी भुलाया नहीं जा सकता। कुछ समय के लिए स्मृति से उतर भी जाए, तो भी आस-पास कहीं छिपा रहता है, और अवसर मिलते ही फिर से सामने आ खड़ा होता है। दुःख वह सूदखोर महाजन है, जिसकी किश्तें हर हाल में चुकानी ही पड़ती हैं — चाहे जैसा भी समय हो।

दुःख जीवन की सामान्य अवस्था है —
जीवन यात्रा का वह सराय है जहाँ से हर सफर शुरू होता है और जहाँ हर सफर का अंत भी होता है। बचपन में खिलौने टूटने का दुःख है, जवानी में सपनों के टूटने का दुःख सालता है तो बुढ़ापा रिश्तों, स्वास्थ्य, उम्मीदें और शरीर गंवाने का दुख लेकर आता है।
हर रिश्ते की डोर का पहला और आख़िरी छोर भी दुःख ही है। दुख ऐसा है कि सर्वव्यापी है, वर्तमान का दुख तो दुःख देता ही है, भूतकाल का दुःख याद करने पर दुःख देता है, और आने वाले दुःख की चिंता दुःख का कारण बनती है।

 
दुःख वो बेताल है जो आपकी पीठ पर बैठा रहता है, आपको डराता है, आपसे तरह तरह के सवाल पूछा करता है। और दुखों को जवाब देकर भी क्या फायदा। उसे न सही उत्तर में कोई दिलचस्पी है और न गलत उत्तरों की कोई जिज्ञासा। आपकी पीठ पर बैठा बेताल रूपी दुःख आपसे कुछ दूर दूर भी जाने लगे तो आपके अंदर का विक्रम उसके पीछे दौड़ कर खुद पकड़ लेता है।


दुःख जीवन का ध्रुव तारा है, उसे देख कर ही जीवन निरंतर आगे बढ़ता रहता है। सभी सुख प्राप्त हो जाने पर आगे का सफर तय करने की क्या आवश्यकता रह जाएगी।

दुःख का एक दूर का सौतेला भाई है — सुख।
दोनों में कभी बनती नहीं।


सुख का स्वरूप दुख से भले अलग प्रतीत हो , वास्तव में  अलग नहीं है। अन्यथा दूसरों का सुख देख कर मनुष्य दुखी क्यों होता और सुख भोगता मनुष्य भी संभावित दुःख को विचार कर दुःखी क्यों होता।
ज्यादा सुख पा रहा व्यक्ति अपने से कम सुख में रह रहे व्यक्ति को दुखी क्यों मानता। और पहले से सुखी व्यक्ति दूसरे का अधिक सुख देख कर दुःखी क्यों हो जाता।

सुख और दुःख जीवन की चाकी के दो पाट हैं —
दुःख नीचे वाला पाट है, जो स्थिर रहता है,
और सुख ऊपर वाला — जो कभी चलता है, कभी ठहर जाता है।
पर दुःख वाला पाट हमेशा वहीं रहता है,
अडिग, अचल, सदा साथ।

और जो जीवन में अटल है, अचल है, उसका दुःख कैसा?? 



Saturday, October 25, 2025

जीवन चक्र

यौवन रात्रि है —
नव ओस से भीगी, स्वप्नों से सजी।
यह रात्रि गंध से भरपूर है,
जैसे किसी कमल पर चाँदनी उतर आई हो।
हर तारा कोई अव्यक्त स्वप्न है, दूर से टिमटिमाता सा
अपनी ओर बुलाता सा।
हवा का हर झोंका है
मानो किसी अदृश्य आलिंगन का निमंत्रण।
मन में लहरें हैं — जो शब्द नहीं जानतीं,
केवल गुनगुनाती हैं,
“मैं हूँ, मैं चाहती हूँ, मैं जीना चाहती हूँ…”

यौवन की यह रात है चपल 
स्पंदित तरंगित विचलित
थिरकती है —जैसे कृष्ण बांसुरी की धुन पर झूमती गोपियां।
इसमें ज्ञान का प्रकाश नहीं,
पर अनुभूति की दीप्ति है।
यह रात्रि प्रेम की है, संगीत की है,
मृगतृष्णा की भी है —
पर मृगतृष्णा भी तो एक सौंदर्य ही है।


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फिर पूरब में अरुणिमा जागती है।
रात्रि की कोमल छाँवें सिमट जाती हैं,
और यथार्थ का सूर्य सिर पर आता है।
अब सपने धरती मांगते हैं,
अब भावना श्रम बनती है।
माँग में सिंदूर नहीं, पसीना भरता है।
प्रेम अब शबनम की नाजुक बूंद नहीं,
खेत की मिट्टी की नमी बन जाता है।
दिन में आँखें खुली रहती हैं,
पर दृष्टि थकी हुई।
अब चाँदनी की शीतलता नहीं,
प्रकाश की तीव्रता है —
जो सुंदर नहीं,
पर आवश्यक है।

यह मध्यवय है —
जहाँ आत्मा तपती है,
शरीर पर हावी होने लगती है जरा
निश्छल चेहरे पर आ जाती हैं
लकीरें निशान और भर चुके घाव के निशान
मानों गुजरते वक्त के छोड़ दिए हों अपने हस्ताक्षर
पर भीतर कहीं रात्रि की कोमल याद 
अब भी ठहरी रहती है।


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धीरे-धीरे दिन ढलता है।
धूप की तीखी रेखाएँ नरम पड़ती हैं।
क्षितिज पर जब सूर्य थककर बैठता है,
तो लगता है — जीवन ने एक लंबा अध्याय पूरा किया।

अब मन में कोई अधूरी चाह नहीं,
केवल स्मृतियों की मृदुल गूँज है।
अब आँखों में तारे नहीं,
पर उन तारों की याद है
जिन्होंने कभी यौवन की रात में साथ दिया था।

सांझ की हवा में एक शांति है —
जैसे कोई दीया अपने अंतिम क्षण में
सबसे उजली लौ बन जाए।
यह सांझ यौवन की वापसी नहीं,
उसकी परिपूर्णता है।

यौवन ने जो स्वप्न देखा,
दिन ने जो कर्म से पूरा किया,
सांझ उसी का सार है —
एक गहरी तृप्ति,
एक मौन प्रकाश।

भोर की कोमल मुस्कान से लेकर
रात्रि की निस्तब्ध शांति तक —
जीवन एक ही दिन है।

हर अवस्था —
भोर, रात्रि, दिन, सांझ —
एक-दूसरे में विलीन।
जैसे लहरें समुद्र से निकलकर
फिर उसी में लौट जाती हैं।
यौवन की रात में आत्मा ने जो जाना,
सांझ में वही आत्मा उसे पहचानती है।
और तब समझ आता है —
जीवन बीता नहीं,
केवल संपूर्ण हुआ है।

Saturday, October 18, 2025

नीले निशान का गीत

देखता हूं —
युवा पीढ़ी को उंगली में स्याही लगा के
सेल्फी लेते हुए।
कैमरे के सामने मुस्कुराते हैं,
जैसे कोई युद्ध जीत आए हों
या जैसे लोकतंत्र
उनकी उंगली पर सिमट आया हो।

पर मैं जानता हूं —
यह स्याही यूं ही नहीं लगती।
इसका रंग बना है
असंख्य शिक्षकों के पसीने से,
जो घर-घर जाते हैं,
नाम पुकारते हैं —
“कहीं कोई मतदाता छूट तो नहीं गया?”

उनके जूतों में धूल है,
पर आंखों में उजाला —
कि नाम जुड़ते रहें
तो देश जुड़ता रहेगा।

इस स्याही में मिला है
उन सिपाहियों का त्याग,
जो अपने घरों से दूर
वीरान स्कूलों में ठहरते हैं —
जहां बिजली नहीं,
पर मच्छर जरूर होते हैं।
वे कहते हैं —
“ड्यूटी इज़ ऑन, सर।”
और उस एक वाक्य में
सारा राष्ट्र गूंजता है।

यह स्याही बनी है
उन अधिकारियों की थकी  सूखी आंखों से
जो भूल चुके हैं
अपना घर, अपनी छुट्टियां, अपनी नींद।
फाइलों के बोझे तले
वे खोजते हैं लोकतंत्र का चेहरा —
हर बार नए नाम से, नई सटीकता से।

और जब कोई युवा
अपनी स्याही लगी उंगली
सोशल मीडिया पर दिखाता है —
मुझे लगता है
जैसे किसी नदी ने
अपना जल लौटाया है बादलों को।

यह स्याही का काला टीका
सिर्फ़ निशान नहीं —
एक वादा है,
एक स्मरण है,
कि हम इस सपने को सहेज कर रखेंगे,
और स्नेह भरा एक दबा सा डर
कि अपनी जम्हूरियत पर
कभी किसी की नज़र न लगे।

हर कुछ वर्षों में
यह स्याही फिर लगनी चाहिए —
जैसे दीपावली में दिया जलता है,
वैसे ही चुनाव में लोकतंत्र।

क्योंकि यही तो वह रंग है
जिससे भरी जाती है आशा की मतपेटी।
हर वोट — एक कली है
जो खिलती है विश्वास के मौसम में
और बनाती है अपना लोकतंत्र का बागीचा।

तो जब उंगली पर स्याही लगे —
थोड़ा ठहर कर देखना,
यह सिर्फ़ नीला काला  रंग नहीं है —
यह मेहनत, यह त्याग, यह उम्मीद का रंग है।

और इस रंग को
बीच-बीच में लगाना ज़रूरी है —
कि याद रहे,
हम अब भी ज़िंदा हैं
एक लोकतंत्र में,
जहां स्याही सूखती नहीं,
बस अगली सुबह तक
सम्भाल कर रखी रहती है।

Thursday, September 25, 2025

अंधा कुआं

कभी सोचा है, ये फिकरा कैसे बना होगा
कि गहरे कुएं को कहते हैं अंधा कुआं।
कुआं अंधा नहीं होता,
गिरने वाले भी आंखों से महरूम नहीं होते,
पर भीतर उतरते ही
नज़रें बेकार हो जाती हैं,
रास्ते बंद हो जाते हैं।

नीचे गिरते लोग
बस अपनी ही आवाज़ सुनते रहते हैं,
प्रतिध्वनि की कैद में
और गहरे धँसते जाते हैं।
किसी और की बात
उनके कानों तक पहुँचती ही नहीं,
क्योंकि उनका सारा अस्तित्व
अपने ही शोर में डूबा होता है।

यही तो है असली अंधापन—
न कहीं जाना,
न किसी और को सुनना,
सिर्फ़ गिरते रहना
और अपनी ही आवाज़ में कैद हो जाना।

Wednesday, September 17, 2025

विश्वकर्मा दिवस पर विशेष


इंजीनियरिंग सिर्फ़ पुलों और मशीनों की नहीं, ज़िन्दगी की जुगाड़ों की भी भाषा है।

बचपन से ही, हम सबों में एक इंजीनियर छिपा होता है। चाहे रेनॉल्ड्स वाली बॉल पेन, जिसने लिखना बंद कर दिया हो, उसकी निब को हथेलियों के बीच रगड़ कर चलाने की जुगत लगाना हो — या उसी कलम के ढक्कन को रबड़ के छल्ले से गुलेल बनाना हो। उसी कलम से टेप रिकॉर्डर में फँसी ऑडियो कैसेट को निकालना हो।

वो हमारे अंदर का इंजीनियर ही था, जो चाहे हाथ-पैर, चेहरा और कपड़े सबमें ग्रीस की कालिख भले ही लगा ले, पर साइकिल की उतरी हुई चेन खुद ही चढ़ाना चाहता था। बड़े होने पर अपनी स्कूटर को टेढ़ा करके स्टार्ट करने की जुगत करता अधेड़ पड़ोसी अंकल भी इंजीनियर ही तो हैं।

उसी बालकनी में खड़ा अंकल का बेटा, जो बेडशीट और चादर को जोड़ उसमें गांठें लगाता है ताकि दोस्तों के साथ रात का शो देखने के लिए बालकनी से उतर सके — यह भी तो इंजीनियरिंग ही है। होली के समय किस गुब्बारे में कितना पानी भरा जाए, किस एंगल से फेंका जाए कि सीधे ‘गया-करने’ वाले अंकल को लगे, ऐसी जुगत लगाने वाले भी इंजीनियर ही हैं।

बुढ़ापे में अपने टूटे चश्मे को ठीक करता वृद्ध, और उसके बगल में बैठे उसकी फटे कुर्ते को रफ़ू कर पहनने लायक बनाती उसकी जीवनसंगिनी — ये दोनों भी तो इंजीनियर का ही काम कर रहे हैं।

इंजीनियर का असली काम यही है: सीमित साधनों में सैद्धांतिक ज्ञान का प्रयोग करके, कम ख़र्च में जीवन को सरल बनाना।
हाँ, इंजीनियर का अपना जीवन भले आसान न हो, पर आपके जीवन को आसान बनाने के लिए वह हमेशा तत्पर रहता है।

उन सभी को सलाम, जो अपने हुनर से दुनिया को बेहतर बनाते हैं।

विश्वकर्मा पूजा की शुभकामनाएँ और इंजीनियर्स डे की हार्दिक बधाई!


Thursday, September 11, 2025

सोशल गुरुकुल

लोग सोशल मीडिया का मज़ाक उड़ाते हैं, पर अगर ग़ौर से देखें तो ये प्लेटफ़ॉर्म ही ज़िंदगी के फ़लसफ़े समझा रहे हैं —

व्हाट्सएप कहता है – “भाई, अपने स्टेटस का घमंड मत कर, मेरी तरह 24 घंटे बाद गायब हो जाएगा!”

इंस्टाग्राम समझाता है – “सबकी ज़िंदगी एक शॉर्ट स्टोरी है, रील भी… कोई यहाँ ‘हज़ारों साल जीने’ का कॉन्ट्रैक्ट लेकर नहीं आया।”

फेसबुक फुसफुसाता है – “अच्छी चीज़ों को लोग पसंद नहीं करते, लेकिन कोई बुराई दिख जाय तो लोग टूट पड़ते हैं। अच्छे से अच्छा कपड़ा पहन के फोटो डालो तो कोई लाइक नहीं, लेकिन अगर उसी कपड़े की सिलाई थोड़ी सी उधड़ गई दिखी तो शेयर पर शेयर होंगे!”

ट्विटर याद दिलाता है – “कोई भी ‘ट्रेंड’ हमेशा के लिए नहीं होता, इसलिए अपना गुस्सा भी 280 कैरेक्टर में समेट लो।”

ज़िंदगी भी किसी यूट्यूब वीडियो जैसी है — बीच-बीच में “दुख” नाम के विज्ञापन आ ही जाते हैं।
तुम चाहे कितने ही अच्छे चैनल पर सब्सक्राइब क्यों न किए हो, ये तो होना ही है। गुस्से में स्क्रीन मत तोड़ो, वीडियो देखना मत छोड़ो, धैर्य से 5 सेकंड रुको… फिर “Skip Ad” का बटन अपने-आप दिखने लगेगा।

और ऑरकुट दादा कह गए थे – “बेटा, प्रोफ़ाइल कितनी भी सजाओ, लेकिन आख़िर में ‘डिलीट अकाउंट’ का बटन दबाना ही है।”


Saturday, September 6, 2025

ट्रंप चचा के नाम एक पत्र

चचा ट्रंप,
पाय लागू। 

ई क्या लगा रखे हो। रोज नया टैरिफ हर घंटे नया ट्वीट। चचा हम लोग भारतीय हैं और भारतीय इतनी आसानी से डरने वाले नहीं हैं। बागी 4, हाउसफुल 5, भूल भुलैया 3 और वार 2 देखकर हम भारतीयों को कुछ नहीं हुआ और तुम्हें  लगता है कि हम लोग टैरिफ से डर जायेंगे। मत भूल ट्रंप हम लोग न्यूक्लियर पावर हैं। हमें न्यूक्लियर पावर इस्तेमाल करने के लिए बाध्य नहीं करो। इधर हमने न्यूक्लियर बटन दबाया नहीं कि बॉलीवुड वाले स्टूडेंट्स ऑफ द ईयर 3 और हाउसफुल 6 बना के न्यूयॉर्क में रिलीज़ कर देंगे। तुम्हारे सिनेमा थियेटर से लोग ऐसे घायल होकर निकलेंगे मानो शिंडलर्स लिस्ट 2 की शूटिंग के बाद जूनियर आर्टिस्ट निकल रहे हों। और यह तो सिर्फ नमूना है। तुम्हारी हुड़कचुल्लू वाली आदतें बनी रही तो भारत वाले विपंस ऑफ मास डिस्ट्रक्शन बनाने में पीछे नहीं रहेगा। 

वह तो हम लोगों का दिल बड़ा है कि हम अब तक तुम्हें इग्नोर कर रहे हैं। नहीं तो देशद्रोही 2, राम गोपाल वर्मा की आग रिटर्न्स, और सड़क 3 : महेश भट्ट स्ट्राइक्स अगेन जैसे weapons off mass destruction बना के तुम्हारे देश में रिलीज़ कर देंगे। कोरोना से तो बच गए क्योंकि वह चाइनीज वायरस था और चाइनीज सामान का वैसे भी कोई गारंटी नहीं होता। हमारे हथियार के भंडार में देशद्रोही 2 और सड़क 3 जैसे खांटी देसी हथियार हैं, इनसे  बच नहीं पाओगे। अभी तो बहुत अंग्रेजी में इधर टैरिफ उधर टैक्स लगाते रहते हो , एक बार किसी का भाई किसी की जान का सीक्वल सिर्फ एनाउंस कर दिया न तो तुम्हारी हालत उस मुकेश की तरह हो जाएगी तो हर फिल्म के शुरू  होने से पहले ही ओरल कैंसर से मर जाता है। 

बाकी तुम बूढ़े हो रहे हो और बूढ़े बुजुर्ग का की हम लोग इज्जत करते हैं। लेकिन अपनी इज्जत अपने हाथ में होती है। जो भी तुम्हारी इज्जत बची खुची है, उसको भी बर्बाद करने के लिए विवेक अग्निहोत्री को बोल कर द डोनाल्ड ट्रंप फाइल्स नाम से फिल्म बनाने से कोई हमें रोक नहीं सकता। एक बार द डोनाल्ड ट्रंप फाइल्स वाली फिल्म वाशिंगटन में रिलीज़ हो गई तो तुम्हारी भी उतनी ही इज्जत बचेगी जितनी बोलो जुबां केसरी का विज्ञापन करने के बाद अजय देवगन की बची है। देवगन साब से याद आया सन ऑफ सरदार 3 से अगर बचना है तो सुधर जाओ और यह टैरिफ वाला खेला बंद करो। तुम्हारा  यह टैरिफ वाला खेला उतना ही दिन चलेगा जितने दिन आमिर खान और ट्विंकल खन्ना की फिल्म मेला सिनेमाघरों में चली थी। 

अगर मेला 2 के कहर बचना है , तो ध्यान से सुनो। हम लोग सिर्फ मदर इंडिया और लगान बनाने वाले देश नहीं है, हमारा गुस्सा मत जगाओ। याद रखना हमारे डायरेक्टर्स साजिद खान, कांति शाह ने फिल्म बनाना छोड़ा है , वो फिल्म बनाना भूले नहीं हैं। अब मैं चला अकेले थिएटर में बैठकर बागी 4 देखने। आशा करता हूं कि जिस प्रकार देर से ही सही लेकिन टाइगर श्रॉफ की थोड़ी थोड़ी दाढ़ी आ गई है, तुम्हें भी देर सबेर अकल आ ही जाएगी। 

तुम्हारा शुभचिंतक,
एक साधारण बॉलीवुड फैन

Thursday, September 4, 2025

शिक्षक दिवस पर विशेष

धरती पर सबसे ज्यादा पानी किसके पास है? आप कहेंगे सागर में। क्या आप उसका पानी पी कर अपनी प्यास बुझा सकते हैं? उत्तर होगा नहीं। उसका पानी तो। खरा है और खरा पानी पी नहीं सकते। अच्छा तो आप खारा पानी नहीं पी सकते। पीने के लिए तो मीठा पानी चाहिए। कोई बात नहीं सबसे बड़ा मीठे पानी का स्रोत क्या है? बहुत सारे हैं , भादो का महीना है तो चलिए मान लेते हैं बादल और मानसून। आपको अभी प्यास लगी है , कहिए मानसून को कि आपको एक ग्लास पानी पिला दे। आप कहेंगे कि पागल हो गया है क्या? बादल आपको कहीं एक ग्लास पानी देगा। उसको बोलना भी मत, कहीं फट गया तो तुम और तुम्हारा ग्लास कहीं बह के चल जाएगा, पता भी नहीं चलेगा। मीठे पानी वाला बादल कितना मीठा होता है वो हिमाचल वालों से जाकर पूछ लो।

चलिए गणित की ही बात करते हैं। सबसे बड़े गणितज्ञ कौन हुए हैं? फ्रेडरिक गॉस, पाइथागोरस, आर्यभट ,  रामानुजम ?? तो बताइए कि आपने कितनी बार गणित सीखने के लिए रामानुजम की किताब पढ़ी है या सीधे आर्यभट के लिखे संस्कृत के ग्रंथों का अध्ययन किया है। आप कहेंगे कि आज क्या बेतुके सवाल पूछ रहा है? रामानुजम का तो मैने नाम सुना है बस, गणित तो मैने अपने मैथ्स सर से सीखा है। थोड़ा गुस्सैल थे लेकिन जो भी सीखा उन्हीं से सीखा। वैसे ये गॉस कौन था, नाम सुना सुना लग रहा है।

Exactly.... शिक्षक किसी विषय का सबसे ज्ञानी व्यक्ति नहीं होता। न ही सबसे नामी व्यक्ति होता है। जिस प्रकार भूख मिटाने के लिए मां के हाथ की दो रोटी चाहिए होती है ना कि गीदम में रखे गेहूं के बोरे। वैसे ही प्यास तो घर का छोटा सा नल ही बुझाता है , न कि मानसून और समंदर।

शिक्षक उसी मां के हाथ की बनी रोटी और घर के नल की तरह है जो आपकी भूख और प्यास बुझाता है।
शिक्षक  जीवन ज्ञान और उसके निहित दर्शन को आपके सामने सरलतम रूप में , ग्राह्य रूप में आर सुपाच्य रूप में आपके सामने प्रस्तुत करता है। यही मानव सभ्यता के विकास का आधार है। ज्ञान और जीवन अनुभवों का सतत , सुगम , सरल और सुग्राह्य रूप में प्रवाह।

सभी शिक्षकों को शिक्षक दिवस की शुभकामनाएं।
 


Sunday, August 31, 2025

अब क्या बेच कर सोएं?















Wednesday, August 27, 2025

1893 : भारतीय आत्मजागरण का वर्ष



पहली कहानी – पीटर मार्टिजबर्ग स्टेशन , दक्षिण अफ्रीका की रात

दक्षिण अफ्रीका की एक ठंडी रात। प्रिटोरिया जाने वाली ट्रेन के डिब्बे में एक नौजवान बैरिस्टर अपने रिज़र्व्ड टिकट के बावजूद धक्का देकर बाहर फेंक दिया जाता है—केवल इसलिए कि उसकी त्वचा सांवली है। प्लेटफॉर्म की सर्द हवा में पड़े मोहनदास करमचंद गांधी के भीतर कुछ टूटता नहीं, बल्कि कुछ नया जन्म लेता है। उसी रात बैरिस्टर गांधी से महात्मा गांधी बनने का बीज फूटता है।
"अन्याय के आगे झुकना भी अन्याय है,
और अन्याय से लड़ना ही सच्चा न्याय है।"

दूसरी कहानी – शिकागो का मंच
उधर, समुद्र पार अमेरिका में शिकागो की Parliament of Religions में एक दुबला-पतला, तेजस्वी संन्यासी नरेंद्र खड़ा है।
“Sisters and Brothers of America…”
यह संबोधन सुनकर हॉल तालियों से गूंज उठता है। यह नरेंद्र अब केवल नरेंद्र नहीं रहता—स्वामी विवेकानंद बन जाता है, जो भारत की आत्मा को पूरी दुनिया के सामने गर्व से प्रस्तुत करता है।
"न स्वयं पतन्ति, न सतां समीपात् पतन्ति —
जो स्वयं ऊँचाई पर होते हैं, वे दूसरों को भी उठाते हैं।"

तीसरी कहानी – पुणे की गलियां
इधर भारत में, पुणे की तंग गलियों में लोकमान्य तिलक गणेश चतुर्थी को घर की पूजा से बाहर निकालकर जन-जन का उत्सव बना रहे हैं। वह लोगों को प्रेरित करते हैं कि घर के छोटे से पूजा घर की जगह गणपति की पूजा बड़े बड़े सार्वजनिक पंडालों में की जाय। उनका मकसद केवल पूजा नहीं, बल्कि राष्ट्रभक्ति की मशाल जलाना है। गणपति बप्पा की प्रतिमा के सामने देशभक्ति के गीत गूंजते हैं, व्याख्यान और नाटक होते हैं, लोग संगठित होते हैं। यही वह बीज है जिससे आगे चलकर आज़ादी का विराट वृक्ष पनपता है।
"वन्दे मातरम् के स्वर जहाँ गूँजते हैं,
वहीं से स्वराज्य का सूर्योदय होता है।"

तीन कहानियां, एक ही साल – 1893

1893 कोई साधारण वर्ष नहीं था।

पीटरमार्टिजबर्ग की रात ने हमें सत्याग्रह का संकल्प दिया। “अहिंसा ही सबसे बड़ा शस्त्र है"।

शिकागो के मंच ने हमें आत्मगौरव का संदेश दिया। “उठो, जागो और अपने महान् होने का बोध करो।”

पुणे की गलियां ने हमें संगठित राष्ट्रवाद का मार्ग दिया । “धर्म और संस्कृति से बड़ा प्रेरणा स्रोत कोई नहीं।”

यह वह साल था जब भारत ने महसूस किया कि वह केवल सोने की चिड़िया नहीं, बल्कि जीवित आत्मा है।

"स्वत्व जागरणे राष्ट्रं जागरति।
जब व्यक्ति अपनी शक्ति पहचानता है, तब राष्ट्र भी जाग उठता है।"

आज जब पूरा राष्ट्र गणेश चतुर्थी मना रहा है, तो स्वाभाविक है कि इसके स्वरूप को बदलने वाले बाल गंगाधर तिलक को भी प्रणाम करें। प्रणाम करें स्वामी विवेकानंद को और राष्ट्रपिता को। एक तरह से देखें तो सबका जन्म 1893 में ही हुआ। 
 
गणपति बप्पा मोरया! मंगलमुर्ति मोरया!  

गणेश चतुर्थी की  हार्दिक शुभकामनाएं।।