Wednesday, October 16, 2019

डायर ने गोलियां नहीं चलाई थीं

13 अप्रैल 1919 को हुआ जलियांवाला बाग हत्याकांड भारत के इतिहास का एक रक्तरंजित अध्याय है। सैकड़ों निःशस्त्र भारतीय बिना किसी पूर्व सूचना के मृत्यु के घाट उतार दिए गए। भारतीय स्वंतत्रता संग्राम के इस अध्याय ने नरमपंथी आंदोलन का पूर्ण पटाक्षेप कर दिया और स्वतंत्रता आंदोलन की दिशा अलग चरमपंथी और उग्रपंथी दिशा में तय कर दी। जैसा कि समकालीन वर्णन बताते हैं कि भगत सिंह के कोमल मानस पर इसका बहुत स्थायी से प्रभाव पड़ा और " बंदूके बो रहा हूँ" वाला बालक भगत पैदा हुआ। इसका बदला शहीद उधम सिंह ने पंजाब के तत्कालीन गवनर ओ"डायर को मार कर लिया। जनरल डायर को ब्रिटिश सरकार ने बिना किसी सजा के छोड़ दिया यद्यपि कई स्रोतों की माने तो डायर ने आत्महत्या कर अपने जीवन का अंत किया।


कमोबेश देखें तो उपरोक्त विवरण इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाये जा रहे विवरण का सार है। चूंकि हम इस बार इसकी सौवीं सालगिरह मना रहे हैं तो इस अध्याय को एक दूसरे नज़रिये से देखना भी आवश्यक हो जाता है। ब्रिटिश सेना में भारतीयों और अंग्रेजों का अनुपात करीब करीब 4: 1 था। निचले स्तर पर यह अनुपात ज्यादा ही रहा होगा। जैसा कि मैंने फिल्मों में देखा है कि डायर एक जीप में बैठ कर आता है और सैनिक उसके पीछे पैदल मार्च करते हुए बाग में प्रवेश करते हैं। यह अनुमान लगाना सरल है कि पैदल सैनिक या सिपोय भारतीय ही रहे होंगे। सरकारी आलेख बताते हैं कि दायर के साथ कुल 90 सैनिक थे जो सिख, गोरखा, बलोच और राजपूत बटालियन से लिये गए थे। इसका वर्णन नहीं मिलता कि डायर ने खुद बंदूक चलाई। हाँ, उसने फायर का वह क्रूर आदेश जरूर दिया, लेकिन खुद गोली नहीं चलाई। तकनीकी रूप से कहें तो जालियां वाला बाग हत्याकांड के पीछे दिमाग और योजना भले की विदेशी हो, उस योजना को अंजाम भारतीय हाथों ने ही दिया था। कुल 1650 राउंड गोलियां चलाईं गई, और तब तब चलाई गई जब तक गोलियां खत्म ना हो गईं। मरने वालेकी संख्या और भी ज्यादा ही सकती थी लेकिन मशीनगनों से लैस 2 जीप संकरे दरवाजे को पार न कर सके और बाहर ही खड़े रहे। गोलियां चलाने वाले  भारतीय, मरने वाले भारतीय और एक डायर।

डायर का अपराध अक्षम्य है, लेकिन उन भारतीय सैनिकों का क्या? क्या उनके हाथ निर्दोषो के खून से नहीं सने? चलाई गई  1650 राउंड सारी की सारी गोलियाँ भीड़ ही क्यों चली? किसी भारतीय सैनिक के भी मन में नहीं आया कि अपने संगीन का रुख डायर की तरफ कर दे? क्या ग़ुलामी और अंग्रेजों के प्रति वफादारी के मोतियाबिंद ने किसी सैनिक को मरते बच्चों और महिलाओं की तरफ दयादृष्टि दिखाने से रोक दिया। क्या अंग्रेज़ मालिक के आदेश सुन सुन कर उनके कान इतने अभ्यस्त हो चुके थे कि उन्हें निरपराधों की चीख तक न सुनाई पड़ी। अनाधिकृत सूत्र बताते हैं कि डायर उस रात एक भारतीय जमींदार के यहाँ रात के खाने पर आमंत्रित हुआ और उसने भोजन का आनंद पूरे भारतीय आथित्य के साथ लिया।

मानव जीवन भी कुछ ऐसा ही है। हमारी विनाशकारी गतिविधियों के लिए मुख्यतः हम स्वयं जिम्मेदार होते हैं। यह अलग बात है कि हमारी विनाशलीला का डायर कोई बाह्य व्यक्ति, बाहरी परिस्थिति या कोई अन्य कारण हो सकता है। लेकिन वो डायर भी आपको विनाश के लिए आदेश ही दे सकता है, अपने आप पर गोली आप खुद चलाते हो। आवश्यक है की किसी बाहरी डायर को आप अपने आप पर इतना हावी न होने दें कि आपके आत्मविश्लेषण की क्षमता जाती रहे। किसी भी व्यक्ति या परिस्थिति का आप पर इतना असर न हो कि आपका स्वविवेक कुंद पड़ जाए और आप बाह्य कारकों को रोकने के लिए एक गोली भी न चला सकें। याद रखना चाहिये कि भले ही दुनिया आपके डायर को आपके विनाश के लिए उत्तरदायी ठहराए, लेकिन उसका कोई फायदा नहीं। आपके हृदय के एक कोने में  यह टीस हमेशा रहेगी कि स्वविनाश के कार्यवाहक आप स्वयं हैं भले ही उत्प्रेरक बाह्य कारण हों।

किसी विद्वान ने कहा है कि इतिहास से हम यही सीखते हैं कि हम इतिहास से कुछ नहीं सीखते। कदाचित यह सच भी है क्योंकि हर व्यक्ति अपनी कहानी का एक डायर
ढूँढ ही लेता है जिस पर सारी विनाशलीला की जिम्मेदारी मढ़ दी जाती है और अपनी कमजोरियों को एक उत्पीड़ित छवि की मोटी चादर ओढा दी जाती है। आत्मविश्लेषण करें तो शायद निजी जीवन के कई जलियांवाला रोके जा सकते हैं।